जीवन की खुली पाठशाला को पढ़ाता ‘एक था ठुनठुनिया’
Keywords:
बालमन, जिंदादिल बालक, ग्रामीण-बोध, तुकबंदियाँ, बालमनोविज्ञान, प्रतिकृति, सामूहिकता की भावना, सामासिकता, संवाद, ललित कलाAbstract
सारांश:
प्रकाश मनु ने अपने ‘एक था ठुनठुनिया’ उपन्यास में बालमन के सहज, सरल एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति का चित्रण किया है। उपन्यास का बाल पात्र ठुनठुनिया बड़े आसान तरीकों से अपनी समस्याओं का समाधान कर लेता है। इसके साथ ही उसे आशु-कविता करना, बाँसुरी बजाना, मिटटी के खिलौने बनाना और कठपुतली नाच बहुत पसंद है। वह भालू बनकर जहाँ गाँववालों को डराता है वहीं भालू नाच कर सब का मनोरंजन भी करता है। ठुनठुनिया अपनी माँ के साथ अपने दोस्तों एवं रग्घू चाचा और मानिकलाल से बहुत प्रेम करता है। यही कारण है कि जब उसके जीवन में बदलाव आता है तो वह अपने करीबी सभी लोगों को साथ लेकर आगे बढ़ने की सफल कोशिश करता है। उपन्यास में पर्यावरण, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आतंकवाद और अस्मिता संबंधी कई समस्याओं का उल्लेख हुआ है। ठुनठुनिया अपने बाल सुलभ चेतना द्वारा आसानी से इन सबका निवारण कर लेता है। क्योंकि वह जिंदगी के अनुभवों को किताबी ज्ञान से अधिक महत्त्व देता है। पात्र के चरित्र विकास में कहीं भी कृत्रिमता का एहसास नहीं होता है। बाल पात्र के माध्यम से मनु जी ने पाठकों में बाल-चेतना के साथ-साथ मानवीय चेतना को विकसित करने का उपक्रम किया है। जिससे की वे मामले की गंभीरता को भी समझ ले और उनके होंठों की मुस्कान भी बनी रहे।