स्थानीय लोकगीतों  में  झूलता  हुआ भविष्यदर्शी सवेरा

Authors

  • डॉ. आरिफ जमादार

Abstract

विषय सार :

झूलों के गीतों में बचपन का वही सबक जो माँ के गोद से मिला हो  या फिर झुलते हुए झुले में सुनाया गया हो, वह धिरे - धिरे बोये हुए दाने का बडा वृक्ष का रूप ले लेता है   और कब छाँह के सौहार्द का नया प्रकरण लिखते बनेगा यह  पता ही नहीं चलता। ममता की महानदी के किनारे ही बोयी हुई यह फसल जलाराय के दर्पण में आज चहेरा निहारने को प्यासी है। ऐसे में कटी या कटाई गयी फसल को सहारे का एक दस्त मिल जाए तो उफ्फान का गीत फिर बहरेगा - देखना; क्योंकि पहले वाणी की ध्वनि ही हर मनुष्य का इतिहास बनता हुआ दिखाई देता है। किसी ने क्या खूब कहा है कि, "माँ के गोदी में छिपी जुगनू की रौशनी ही सही सूरज का पता बताती है।" अंधेरे में चमकने वाले सितारे बहुत-से होते हैं लेकिन, बालार्क की रौशनी ही इन्सानी जिस्म के खारीज को दूर करती है। अतः यहाँ आवश्यक है कि, माँ के गोदी का हर  एक शब्द बच्चे की अनुगूंजनता बने ताकि कल का उगने वाला सूरज अपनी जगह नही बल्कि, इन्सानी जरूरत पर अपनी रफ्तार बयान करने वाला बन जाए।

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Author Biography

डॉ. आरिफ जमादार

शनिवार पेठ
सोलापुर -४१३००२ महाराष्ट्र

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Published

2022-05-11

How to Cite

डॉ. आरिफ जमादार. (2022). स्थानीय लोकगीतों  में  झूलता  हुआ भविष्यदर्शी सवेरा. पूर्वोत्तर प्रभा, 1(1 (Jan-Jun), p.106–108. Retrieved from http://supp.cus.ac.in/index.php/Poorvottar-Prabha/article/view/59