गालो समाज का दर्शन
Keywords:
दर्शन, गालो, समाज, आत्मा-परमात्मा, प्रकृति, जीव-जगत, दोञी-पोलो, यीरनअ-गोनअ, रेसीतुम-जो, जीतअ-बोतअ, आलि-आम्पिर, पका-कातअ, दिगो-बारजी, आइ-आगाम, निर्गुण-निराकार देवी-देवता आदिAbstract
सारांशिका:
इस आलेख में अरुणाचल प्रदेश के गालो समाज का दर्शन अर्थात् जीव-जगत, भगवान, आत्मा-परमात्मा, प्रकृति आदि से जुड़ी मान्यताओं पर दृष्टि डाली गई है। आलेख के आरम्भ में दर्शन शब्द को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। तत्पश्चात गालो जनजाति का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इस तरह आगे गालो समाज की आत्मा-परमात्मा, सृष्टि-सृष्टा, जीव-जगत आदि मान्यताओं पर चर्चा की गई है। गालो में बहुत सारे देवी-देवताएँ हैं और अधिकतर निर्गुण-निराकार रूपों में पूजे जाते हैं। मिथकों के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व ब्रह्माण्ड एक अथाह शून्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। माना जाता है कि इसी अथाह शून्य से ’जिमी आनअ’ (स्वयंभू देवी/शून्य-माता) की उत्पत्ति हुई। गालो में विश्वास किया जाता है कि ’जिमी आनअ’ ने ही पृथ्वी तथा संसार के सभी जीव-जन्तुओं का निर्माण किया। गालो में यह माना जाता है कि इस संसार में जो भी है उसका कोई न कोई मालिक अवश्य होता है। इसीलिए गालो में हरेक प्राकृतिक वस्तुओं के लिए देवी-देवताएँ हैं जैसे- ’आनअ दोञी’ अर्थात् सूर्य को माता के रूप में, ’आबो पोलो’ अर्थात् चन्द्र को पिता के रूप में, ’यापोम-याजे’ (वन की देवी-देवता), बड़े-बड़े वृक्षों का देवता, जीतअ-बोतअ (घर का देवता), आलि-आम्पिर (आन्न की देवी), नदी का देवता, पका (शिकार का देवता), आइ-आगाम (अच्छी किस्मत एवं समृद्धि) आदि। गालो लोगों का विश्वास है कि इन सभी देवी-देवताओं की कृपा से ही वे स्वस्थ रहते हैं और समृद्ध होते हैं। तरह हम कह सकते हैं कि गालो समाज बहुदेव वादी है और इनकी मान्यताओं को हम लोकतांत्रिक कह सकते हैं जो सर्वात्मवाद में विश्वास करते हैं।
दर्शन को सभी ज्ञान की माता (स्रोत) कही जाती है। यह संस्कृत की ’दृश्’ धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ ’देखना या जिसे देखा जाए’ होता है यानी जिसके द्वारा यथार्थ तत्त्व की अनुभूति हो। अंग्रेजी में जो दर्शन के पर्याय ’फिलॉसोफी’ है उसका अर्थ ’ज्ञान के प्रति अनुराग’ है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार ’दर्शन वास्तविकता के स्वरूप का तार्किक विवेचन है”। दर्शन-शास्त्र के संदर्भ में दर्शनकोश में इस तरह व्याख्यायित किया गया है- ’स्वत्त्व (अर्थात् प्रकृति तथा समाज) और मानव-चिन्तन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान।’ इसमें आगे लिखते हैं- ’दर्शन एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विशदीकरण करने, उसके सामान्य मूलों तथा नियमों का अध्ययन करने, यथार्थ के विषय में चिन्तन की तर्कबुद्धिसंगत विधि, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धान्त विकसित करने की आवश्यकता से दर्शन का विज्ञान के रूप में जन्म हुआ।’ दर्शन शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है और विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न विद्वानों ने इसका अलग-अलग अर्थ में ग्रहण किया परन्तु इसका सर्वसम्मत परिभाषा इस प्रकार हो सकती है- दर्शन ज्ञान की वह शाखा है, जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं मानव के वास्तविक स्वरूप सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने का साधन और मनुष्य के करणीय और अकरणीय कर्मों का तार्किक विवेचन किया जाता है। इस प्रकार एक जाति या समुदाय के दर्शन को एक आलेख में व्याख्यायित करना संभव नहीं है।
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