आदिवासी केन्द्रित समकालीन हिन्दी उपन्यासों में अभिव्यक्त आर्थिक संघर्ष

Authors

  • अनुज कुमार शोधार्थी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

Keywords:

आदिवासी, अर्थ, विद्रोह, संघर्ष, विस्थापन, वेश्यावृत्ति, भुखमरी, अशिक्षा

Abstract

विकास की अवधारणा सभ्य समाज की स्वार्थगत नीतियों पर टिकी है। जिसमें वह प्रकृति का मनचाहा दोहन करती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो विकास के नाम पर पूंजीवादी व्यवस्था का सबसे अधिक प्रभाव आदिवासी जीवन पर पड़ा है। जिन ज़मीनों पर उनका अधिकार था, जो जंगल उनके घर थे वो सब उनसे छिन गए। जिसेक कारण आदिवासी, ठेकेदारों और भू-स्वामियों के बंधुआ मजदूर बनकर रहे गए। राष्ट्र विकास के नाम पर आदिवासी हितों को कुचला गया। पंचवर्षीय योजनाओं में जो विकास का मॉडल प्रस्तुत किया गया उससे आदिवासी समाज को विस्थापन, बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, वेश्यावृत्ति आदि के सिवाए मिला ही क्या है। आदिवासी जीवन को केंद्र में रखकर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं। जिनमें उनके जीवन के संघर्ष को कलमबद्ध किया गया है। हम यहाँ समकालीन हिन्दी उपन्यासों में अभिव्यक्त आदिवासी जीवन के आर्थिक पक्ष पर चर्चा करेंगे। साथ ही उन बिन्दुओं को भी रेखांकित करने का प्रयास करेंगे जिनसे आदिवासी समाज के भीतर एक विद्रोह की भावना पनप रही है।   

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Published

2022-05-12

How to Cite

कुमार अ. . (2022). आदिवासी केन्द्रित समकालीन हिन्दी उपन्यासों में अभिव्यक्त आर्थिक संघर्ष. पूर्वोत्तर प्रभा, 1(2 (Jul-Dec), p.88–91. Retrieved from http://supp.cus.ac.in/index.php/Poorvottar-Prabha/article/view/38