उत्तर-पूर्व भारत का भक्ति आन्दोलन
Keywords:
उत्तर-पूर्व भारत, श्रीमन्त शंकरदेव, भक्ति आन्दोलन, नव-वैष्णववाद, ब्रजबुली, माजुली नदी-द्वीप, लोकतन्त्रAbstract
मध्य काल को कुछ विवादों के साथ लगभग सभी विद्वान भारतीय पुनर्जागरण का स्वर्ण युग मानते हैं, और यह है भी। पहली बार भक्ति काल में ही कवियों और समाज सुधारकों के माध्यम से लोक चेतना का विकास हुआ। लोगों के मानस ने तर्कपूर्ण सोचना शुरू किया। परन्तु अगर हम मध्यकालीन सन्त कवियों को ध्यान से पढें तो लगभग सभी कहीं न कहीं किसी न किसी बिंदु पर संकीर्ण दीखते हैं। इसे वक़्त का तकाज़ा कह सकते हैं। वह एक ऐसा समय था जब जनता एक प्रजारंजक राजा को ही लोकतंत्र मानती थी। प्रगतिशीलता का पुरोधा बनने वाला यूरोप गैलिलियो गालीलेई को सालों तक इसलिए कारागार में रखता है क्योंकि उसने पृथ्वी को सूर्य के चारों ओर घूमता हुआ बताया था। यह संक्रमण का काल था। लोग बदल रहे थे लेकिन धक्कों के साथ, हिचकोले लेते हुए क्योंकि रुढियों का घर्षण तीव्र था। महाप्रगातिशील होने का दावा भरने वाले कबीर के पास भी आधी आबादी की चिन्ता धुंधली है। उनका मानना है कि नारियों के बीस फन हैं और उनको देखने भर से ही विष चढ़ सकता है। अन्य संत कवियों में भी अपने आराध्य और अपने पंथ के प्रति चरम निष्ठा तथा अन्य के प्रति विद्वेष का भाव था। मानव जीवन में व्याप्त संभावनाओं को अपने जीवन तथा लेखन के माध्यम से चरितातार्थ करने वाले बाबा तुलसी भी जीवन के आरंभिक दिनों में वर्णगत संकुचन से ग्रस्त थे। इन अर्थों में उत्तर-पूर्व भारत में भक्ति और समाज सुधर आन्दोलन की अलख जगाने वाले श्रीमन्त शंकरदेव बिलग हैं। उनके पारिजात हरण नाटक में नायिका सत्यभामा, एक आधुनिक नारी की तरह आती है। उनके नाम घरों में सबके लिए स्थान है। वह ब्रजयात्रा पर कृष्णभक्तों से मिलते हैं, ब्रजभाषा सीखते हैं, कृष्णभक्त बनते हैं, असमिया और बंगाली भाषा से ब्रजभाषा का मेल करके एक लोक संपृक्त भाषा ब्रजबुलि का निर्माण करते हैं, लेकिन वह राम का आदर्श देखते हुए उत्तरकाण्ड भी लिखते हैं, जिसमें राम के एक लोकरंजक रूप को दिखाया गया है। वह राम में व्याप्त हर उस मूल्य को उजागर करते हैं जिससे समाज को समरस बनने में सहायता मिले। श्रीमन्त के रचना संसार और कार्य व्यापर को देखते हुए यह कह सकते हैं है की जो काम हिन्दी क्षेत्र में बाबा तुलसी, सुर, कबीर, रामानन्द, दादू, रैदास, आचार्य बल्लभ, परमानन्द दास और सुन्दरदास ने किया, वह कार्य उत्तर पूर्व भारत में श्रीमन्त शंकरदेव ने अकेले ही अपनी वैचारिकी और नीयत से कर दिखाया। उनके इस कार्य में उनके शिष्यों और प्रचारकों का भी योगदान महत्वपूर्ण है। यहाँ पर सुन्दरदास, सूरदास और परमानन्ददास का नाम इसलिए भी लिया गया है क्योंकि श्रीमन्त की रचनाओं में आवश्यक काव्यशास्त्रीय ख़ुराक भी है और अपेक्षित राग-रागिनियाँ भी हैं। उन्होंने छावी, दुलरी, झुमरी, झूमा, पयार, भटिमा जैसे छंदों का निर्माण किया। अपने सत्रों और नामघरों में मंचन के लिए खोल और बाही जैसे वाद्य यंत्रों का निर्माण किया। माजुली नदी द्वीप पर सामान्य जनमानस के आसान जन जीवन के लिए नाव बनाने की कुछ सरल विधियों को भी विकसित किया। श्रीमन्त इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि उनके कर्तृत्व और कृतित्व में आधुनिक लोकतंत्र की एक आशापूर्ण झलकी पांच सौ साल पहले ही विद्यमान थी।
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