प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी में साम्प्रदायिक चेतना
Keywords:
राष्ट्रवाद, उग्र राष्ट्रवाद, सांप्रदायिक वैमनस्य, विभाजन, मानवीय संवेदना, साहित्य एवं सांप्रदायिक चेतना, प्रेम सौहार्द, सहनशीलताAbstract
राष्ट्रवाद को सामान्यतः देशभक्ति का पर्याय माना जाता है। परंतु यही राष्ट्रवाद जब उग्र रूप धारण कर लेता है, तो यह सांप्रदायिक वैमनस्य जैसी आपदा से हमें त्रस्त करता है। राजनीति की बुराइयाँ जब धर्म को प्रभावित करती हैं, तो इसका दुष्परिणाम समाज को झेलना पड़ता है। प्रेमचंदोत्तर हिंदी साहित्य, खासकर कहानी में इसी त्रासदी की चर्चा मिलती है। जहाँ, विभाजन जैसे भीषण परिणाम को दर्शाया गया है। साथ ही धार्मिक दंगे एवं आपसी मनमुटाव तथा हिंसा की वारदातों की भी चर्चा है। परंतु भारतवर्ष की जड़ें, जिसे सर्वधर्म सद्भाव के जल से सींचा गया है वह कभी सांप्रदायिक चेतना के आगे घुटने नहीं टेकेंगी। हम कभी आपसी प्रेम एवं सौहार्द को पूरी तरह भूल नहीं सकते। यही बात हमें कृष्णा सोबती, मोहन राकेश, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, राजी सेठ, नासिरा शर्मा, अमृतराय, अज्ञेय, महीप सिंह, बदिउज्जमाँ आदि की कहानियों में आश्वासन के रूप में नई राह दिखाती है। यहाँ हम मंटो एवं इस्मत चुगताई की मूल उर्दू कहानियों के हिंदी अनुवाद के प्रभाव को भी झुठला नहीं सकते, जो कि हिंदी साहित्य पर एवं समाज पर गहरी छाप छोड़ती है।
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