वर्चस्व की संस्कृति के बीच कृषक जीवन के संकट
Keywords:
सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक नीतियां, नवधनाढ्यों, उपनिवेशवाद, स्वदेशी शासन, जमींदारी उन्मूलन कानूनAbstract
प्रारम्भिक काल से ही भारतीय समाज का विकास एक कृषि आधारित समाज की शक्ल में हुआ है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था का कृषि एवं भूमि व्यवस्था से गहरा रिश्ता है। हमारे देश में कृषि केवल रोजगार का ही साधन नहीं है, बल्कि हमारे जीवन संस्कृति का स्तम्भ भी है। अंग्रेजी शासन के दौरान अपनायी गई आर्थिक नीतियों ने भूमि संबंधों में काफी फेर- बदल किया। ब्रिटिश शासन के समय से ही किसान विद्रोह का एक लम्बा इतिहास रहा है, जो आज भी किसी-न-किसी रूप में बना हुआ है। जिस देश की बहुसंख्यक आबादी गाँवों में रहती है, उस देश के लिए आज़ादी व गुलामी का सीधा रिश्ता गाँवों में रहनेवाले लोगों व उनके पेशों से जुड़ता है। इसलिए भारत की आज़ादी का सीधा रिश्ता कृषि एवं कृषि से जुड़ी आबादी से था। आज़ादी के बाद भी ब्रिटिश उपनिवेश से जुड़े सामंत और पूंजीपतियों का प्रभाव स्वदेशी शासन पर कायम रहा, जिसके परिणामस्वरूप स्वतंत्र भारत में कृषक समाज एक बार फिर उपेक्षित होने लगा। भारत में कृषि संबंधों में लगातार चला आ रहा असंतुलन आज़ादी के बाद के भूमि सुधारों के उपायों से भी नहीं दूर हो पाया। भूमि संबंधों की इस विषमता ने नक्सलवादी आन्दोलन को जन्म दिया। यह आंदोलन आज़ादी के बाद किसानों की उपेक्षा एवं भूमि सुधारों के अपेक्षित परिणाम ना निकलने से जो मोहभंग पैदा हुआ उसकी अभिव्यक्ति है। भारतीय समाज में ‘अन्नदाता’ कहे जाने वाले किसानों द्वारा अपनाया गया हिंसक संघर्ष, और उसके कारणों को किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता, और ना ही हिंसक संघर्ष कृषि से जुड़ी समस्याओं का अंतिम समाधान देने में सक्षम है, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि नक्सलबाड़ी आंदोलन ने कृषि और उससे जुड़े किसान एवं उसकी समस्याओं को मुख्यधारा के विचार- विमर्श के केंद्र में ला दिया । इस आन्दोलन ने भारतीय समाज पर जो प्रभाव डाला, उसका यथार्थ चित्रण नब्बे के बाद के उपन्यासों में भी देखने को मिलता है।
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