बाज़ारवादी विमर्श के अनदेखे, अनजाने, अनकहे गवाक्ष ‘मुन्नी मोबाइल’

Authors

  • किरण ग्रोवर सह-प्रोफेसर, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, डी.ए.वी.कालेज, अबोहर

Keywords:

अस्मिता, दस्तावेज, लिप्सा, विशिष्ट, गवाक्ष, भंवर, उपभोक्ता, शहरीकरण

Abstract

बाज़ारवाद के दौर में हम बाज़ार जाते नहीं बल्कि बाज़ार की चीज़ें हमारा पीछा करती हैं। बाज़ारवादी व्यवस्था हमसे सांस्कृतिक अस्मिता को छीन रही हैं। बाज़ारवाद के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व का स्खलन हुआ है। बाज़ार का प्रभाव इतना सूक्ष्म है कि इसने हमारे चरित्र में परिवर्तन कर दिया है। बाज़ारवादी संस्कृति किस प्रकार मनुष्य की मान्यताओं को लीलकर भौतिक लिप्साओं को जागृत कर सामान्य को विशिष्ट बनने के लिए विवश करती है। प्रदीप  सौरभ ने ‘मुन्नी मोबाइल’ उपन्यास में आधुनिक महानगरीय जीवन के कई अनदेखे, अनजाने, अनकहे गवाक्षों को बेधड़क खोलने का साहस दिखाया है। लेखक ने समकालीन सामाजिक, राजनीतिक यथार्थ की परतों का अनावरण करते हुए सांस्कृतिक इकाइयों के संघर्षपूर्ण जीवन को बनते बिगड़ते दिखाया है तथा वर्गीय, साम्प्रदायिक व क्षेत्रीय अस्मिताओं की पड़ताल की है। साहिबाबाद दिल्ली एन0सी0आर0 का वर्णन करते हुए मुन्नी के माध्यम से शहरीकरण, औद्योगिकरण, सामंतवाद व पूँजीवाद के अंतर्सम्बन्धों को रेखांकित किया है। इस उपन्यास के माध्यम से प्रदीप सौरभ ने ऐसी गाथा रची है जो भौतिक संसाधनों को पा लेने पर भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने वालों की सच्चाई को परत दर परत उघेड़ा है। 21वीं सदी की निम्न वर्गीय स्त्री पर रचित यह उपन्यास यथार्थ के नए पन्नों को खोलता है। उपभोक्तावादी संस्कृति के भंवर में बहती स्त्री की गाथा का गायन किया है । उपभोक्तावादी संस्कृति में स्त्री जागरुक, सचेत, सक्रिय उपभोक्ता के रूप में मौजूद है। भौतिकतावाद के युग में प्रदीप  सौरभ का उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ बाजारवाद का प्रामाणिक व जीवन्त दस्तावेज है। 

 

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Published

2022-05-12

How to Cite

ग्रोवर क. (2022). बाज़ारवादी विमर्श के अनदेखे, अनजाने, अनकहे गवाक्ष ‘मुन्नी मोबाइल’. पूर्वोत्तर प्रभा, 1(2 (Jul-Dec), p.27–31. Retrieved from http://supp.cus.ac.in/index.php/Poorvottar-Prabha/article/view/22