जड़ों की तलाश करती आदिवासी कविताएं
Keywords:
आदिवासी, आदिवासियत, जंगल, ज़मीन, पहाड़, विस्थापनAbstract
शोध सार : आदिवासी समाज एक स्वतंत्र समाज है। इनका अपना भूगोल और इतिहास रहा है। इनकी अपनी संस्कृति, अपनी भाषा-शैली, अपना रहन-सहन और खान-पान इसे अन्य समुदायों से अलगाता है। अपनी शुरुआती दिनों से ही इस समुदाय की अपनी स्वायत्ता रही है। लेकिन आज इस समुदाय की स्वायत्ता का हनन हो रहा है। दिन-प्रतिदन इस समुदाय की स्थिति शोचनीय होती जा रही है। सभ्यता के विकास के नाम पर इस समुदाय को जंगलों और पहाड़ों से खदेड़ा जा रहा है। विकास की इस प्रक्रिया में आदिवासियों ने विस्थापन, शोषण, अन्याय, अत्याचार आदि बहुत कुछ झेला है। समकालीन आदिवासी कविताएँ अपने साथ इन्हीं आदिवासियों की गहन अनुभूतियों को लिए हुए हैं। आदिवासी कविता आदिवासियों से छिने गए जल-जंगल-ज़मीन की वकालत करती है। आदिवासी कविता के मूल में विस्थापित हो रहे आदिवासियों की चिंता दिखाई देती है। विस्थापन के कारण जहाँ आदिवासी-जन एक ओर अपने पूर्वजों से कट रहे हैं वहीं विस्थापन के बाद आदिवासी एक सस्ते मजदूर में तब्दील होते जा रहे हैं। दोनों ही स्थिति में आदिवासी अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। प्रस्तुत आलेख में समकालीन आदिवासी कविता किस तरह अपने छिने हुए जंगल-जमीन और काटे गए जड़ों की तलाश करती है, उसे दिखाया गया है। साथ ही आदिवासी कविता अपने समय और समाज से संवाद करते हुए किस तरह सत्ता में आसीन विधाता से प्रश्न करती है, उसे भी दर्शाया गया है।
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