‘बूढी काकी’ के सौ साल

Authors

  • बी आकाश राव पी-एच.डी. शोध छात्र, हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक

Keywords:

पाठ-पुनर्पाठ, ईश्वर भीरुता, त्रासद, सूक्तिपरक, विडंबना, वृद्धावस्था, पितृसत्तात्मक

Abstract

प्रेमचंद विरचित ‘बूढ़ी काकी’ के प्रकाशन को सौ वर्ष हो चुके हैं । अपनी विषय-वस्तु और कथ्य की प्रासंगिकता के कारण यह कहानी आज भी जीवंत है । आज साहित्य में जिस गंभीर वृद्ध विमर्श की चर्चा की जाती है उसे बहुत पहले ही प्रेमचंद ने अपने साहित्य में दर्ज कर दिया था । बूढ़ी काकी’ का पात्र अपनी विडंबना और उपेक्षा के कारण दयनीय जान पड़ता है । कहानी की पहली ही पंक्ति ‘बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है’ एक तय निष्कर्ष के साथ कथा को लेकर आगे बढ़ती है । वृद्धावस्था की विसंगति और त्रासदी इस कहानी की मूल संवेदना है । विभिन्न आलोचकों ने इस कहानी पर अलग-अलग ढंग से गौर किया है । ग्रामीण परिवेश में चित्रित वृद्धा की असहाय स्थिति हमें कई बिंदुओं को सोचने पर विवश करती है। मनुष्य की शारीरिक अवस्था, अस्मिता का संघर्ष, नायकत्व के मानदंड, वृद्ध और बालमन की मैत्री सुलभता, कहानी की सार्थकता और पाठकवर्ग पर प्रभाव आदि जैसे कई बिंदु अपने समय-सापेक्ष विवेचना की मांग करते हैं ।

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Published

2022-05-06

How to Cite

राव ब. आ. . (2022). ‘बूढी काकी’ के सौ साल. पूर्वोत्तर प्रभा, 1(2 (Jul-Dec), P.11–15. Retrieved from http://supp.cus.ac.in/index.php/Poorvottar-Prabha/article/view/12